जब रुपया अवमूल्यन, वित्तीय बाजार में रुपये की मूल्य में गिरावट को कहते हैं. इसे कभी‑कभी रुपये की गिरावट भी कहा जाता है। इसी संदर्भ में मौद्रिक नीति, सेंट्रल बैंक द्वारा लागू की जाने वाली आर्थिक दिशा‑निर्देश और महँगाई, सामान और सेवाओं की कीमतों में निरंतर बढ़ोतरी का स्पष्ट संबंध होता है। साथ ही, विदेशी निवेश, विदेशी पूँजी और फंड्स का भारतीय बाजार में प्रवेश भी मुद्रा की स्थिरता को प्रभावित करता है। इन तीनों इकाइयों के बीच होने वाले संबंध पूरे आर्थिक परिदृश्य को आकार देते हैं।
सबसे पहले समझें कि रुपया अवमूल्यन क्यों होता है। जब RBI कम ब्याज दरें तय करता है, तो देश के अंदर पैसे सस्ते हो जाते हैं और लोग सहेजने के बजाय खर्च करने लगते हैं। इस फाइनेंशियल इजाजत से मौद्रिक आपूर्ति बढ़ती है, जिससे रुपये की कीमत कम होती है – यही मौद्रिक नीति का असर है। दूसरा कारण है निर्यात‑आय में कमी या आयात‑व्यय में बढ़ोतरी, जिससे विदेशी मुद्रा की मांग बढ़ती है और रुपये का मूल्य घटता है। तीसरा, बाजार में विदेशी निवेशकों का भरोसा घटना, जैसे कि ग्लोबल रेट्स में परिवर्तन या घरेलू राजनीतिक अस्थिरता, सीधे रुपये की स्थिरता को हिलाता है। ये सब मिलकर रुपये को कमजोर बनाते हैं और महँगाई को तेज़ी से बढ़ाते हैं।
रुपया अवमूल्यन का पहला स्पष्ट प्रभाव महँगाई पर पड़ता है। जब रुपये की कीमत घटती है, तो आयातित वस्तुओं की लागत बढ़ती है और वही कीमतें अंत में कंज्यूमर को चुकानी पड़ती हैं। इससे दैनिक जीवन में रोज़मर्रा की चीज़ों की कीमतें बढ़ती हैं – तेल, अनाज, दवाइयाँ आदि। दूसरा प्रभाव शेयर मार्केट और बॉन्ड मार्केट में दिखता है। विदेशी निवेश कम होने से फंड्स एसेट क्लासेस की कीमतें घटती हैं, जिससे निवेशकों के पोर्टफ़ोलियो में गिरावट आती है। तीसरा, ऋण की लागत बढ़ती है क्योंकि विदेशी मुद्रा में ली गई बॉण्ड्स या लोन महंगे हो जाते हैं। इस स्थिति में कंपनियों के लिए पूँजी जुटाना कठिन हो जाता है और उत्पादन में धीमी गति आती है।
सिर्फ समझना नहीं, बल्कि समाधान भी ज़रूरी है। सबसे पहला कदम है बजट में लचीलापन लाना – सरकार को अनावश्यक खर्च को कम करना चाहिए और सार्वजनिक निवेश को ऐसे क्षेत्रों में केंद्रित करना चाहिए जहाँ निर्यात बढ़े। दूसरा, RBI को मौद्रिक नीति में समायोजन करना चाहिए, जैसे कि रेपो रेट बढ़ाना, ताकि पूँजी बाजार में नकदी की आपूर्ति को नियंत्रित किया जा सके। तीसरा, विदेशी निवेशकों को आकर्षित करने के लिए स्थिर नियामक वातावरण बनाना चाहिए, जिससे उनका भरोसा फिर से बढ़े। अंत में, सामान्य दर्शक के तौर पर व्यक्तिगत बचत को विविधीकृत करना और आवश्यक खर्चों को प्राथमिकता देना फायदेमंद रहता है।
इन सभी बिंदुओं को देखते हुए, ये स्पष्ट है कि RBI, रिज़र्व बैंकर भारत का केंद्रीय बैंक की भूमिका और उनके कदम सीधे रुपये की कीमत पर असर डालते हैं। जब RBI एक्सचेंज रेगुलेशन को सख़्त करता है, तो विदेशी निवेश को नियंत्रित किया जा सकता है और रुपये को स्थिर किया जा सकता है। इसी तरह, मौद्रिक नीति के तहत रेपो और रेवरसेज रेट को सही स्तर पर रखना, महँगाई को नियंत्रित करने में मदद करता है। इसलिए, मौद्रिक नीति, RBI के निर्णय और विदेशी निवेश के बीच का लिंक समझना राष्ट्र की आर्थिक सेहत के लिये बहुत जरूरी है।
अब आप जानते हैं कि रुपया अवमूल्यन किन कारणों से होता है, इसका महँगाई और बाजार पर क्या असर पड़ता है, और किस तरह के कदम उठाकर स्थिति को सुधारा जा सकता है। नीचे दी गई सूची में आप विभिन्न लेख, विश्लेषण और अपडेट पाएँगे जो इन पहलुओं को और गहराई से समझाते हैं। चाहे आप निवेशक हों, छात्र हों या सामान्य पाठक, यहाँ की जानकारी आपको रूचिकर और उपयोगी लगेगी। चलिए देखते हैं कौन‑से विषय हमारे पास आपके लिए तैयार हैं।
2025 में भारतीय शेयर बाजार ने तीव्र गिरावट देखी, Sensex पाँच दिनों में 1800 पॉइंट गिरा और Nifty 25000 स्तर से नीचे गिरा। विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों के भारी निकास, रुपये का पतन, वैश्विक आर्थिक अनिश्चितताएँ और घरेलू मुद्रास्फीति ने इस गिरावट को तेज किया। RBI और SEBI ने बाजार को स्थिर करने के लिए कदम उठाए, पर अब भी जोखिम बना हुआ है।
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